मज़हब

कई साल पहले की बात है... हमारे दफ़्तर में एक लड़की आई... बहुत परेशान थी... उसकी मां सौतेली थी... उसके पास कोई काम नहीं था... हमसे उसकी जो मदद हुई, कर दी... उसे नौकरी मिल गई... उसे कभी कोई परेशानी होती, तो हमें बताती... उसके प्रेमी ने उसे धोखा दे दिया था... वह बहुत बुरी तरह टूट चुकी थी... अब वह शादी करके बस चाहती थी, ताकि अपने प्रेमी को भूल सके... अख़बारों में शादी के इश्तिहार देखा करती थी... फिर हमें बताती भी थी...
एक दिन वह हमारे पास आई और कहने लगी- डियर तुमने सॊरी कहना है...
हमने पूछा क्यों...?
कहने लगी कि मेरी दादी हमेशा कहा करती थीं कि मुसलमान बहुत ख़राब होते हैं... और मैं भी बचपन से मुसलमानों से नफ़रत करती थी... लेकिन तुमसे मिलकर मुसलमानों के प्रति मेरा नज़रिया बदल गया... तुम मेरी सबसे अच्छी दोस्त हो...
कितनी सच्चाई से उसने अपनी बात कही... हम उसकी इस बात को कभी भुला नहीं पाए...

दरअसल, कुछ लोग अपने मज़हब के नाम पर इतना ज़हर उगलते हैं कि उनके उस मज़हब से ही नफ़रत होने लगती है... शायद उसकी दादी के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ हो...?

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