जीना इसी का नाम है…


फ़िरदौस ख़ान
इंसान के बहुत से सपने होते हैं, ख़्वाहिशें होती हैं, लेकिन जब उसके इंद्रधनुषी सपने और ख़्वाहिशें पूरी नहीं हो पातीं, तो वह दुखी हो जाता है. उसे लगता है कि ज़िंदगी में अब कुछ नहीं बचा, सब कुछ ख़त्म हो चुका है. दरअसल, यहीं से उसके दुखों की शुरुआत होती है. उसे अपनी ज़िंदगी नीरस और बेमक़सद लगने लगती है. लेकिन इंसान अपनी आत्मशक्ति से अपनी ज़िंदगी को ख़ुशहाल बना सकता है. बस, इसके लिए उसे अपना नज़रिया बदलना होगा. अगर वह अहंकार को त्याग कर ख़ुद को पहचान ले, तो वह ताउम्र ख़ुशी से गुज़ार सकता है. हिन्द पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित किताब आनन्दमय जीवन का उत्सव में लेखक स्वामी राम ने लोगों को जीने की कला से रूबरू कराया है. हिमालय के संत स्वामी राम का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके जन्म के कुछ दिनों बाद ही पिता का साया उनके सिर से उठ गया. उनकी मां की आंखों की रोशनी चली गई. उन्हें एक बंगाली संत ने गोद ले लिया. उनकी परवरिश हिमालय के मठों में ज़रूर हुई, लेकिन शिक्षा पाश्‍चात्य पद्धति से हासिल की. पहले मसूरी के वुड स्टॉक स्कूल में उनका दाख़िला हुआ. इसके बाद इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से उन्होंने प़ढाई की. वह अध्यात्म को गहराई से समझना चाहते थे और इसके साथ ही संसार के रहस्यों को जानने की जिज्ञासा भी उनमें थी. इसलिए उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीपों का सफ़र किया. उन्हें महान लोगों का साथ मिला. उन्होंने महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर के साथ शिक्षा हासिल की. क़िस्मत ने उनका ख़ूब साथ दिया और महज़ 24 साल की उम्र में वह शंकराचार्य बन गए, लेकिन तीन साल बाद उन्होंने हिंदू धर्म का यह सर्वोच्च पद छो़ड दिया और शादी कर ली. उनके दो बच्चे हुए, लेकिन गृहस्थ जीवन उन्हें ज़्यादा रास नहीं आया और वह फिर से संन्यासी बन गए.

बारह साल तक अकेले ज़िंदगी बसर करने के बाद उन्होंने हिमालयन इंस्टीट्यूट की स्थापना की. यहां योग, संपूर्ण स्वास्थ्य और अध्यात्म की शिक्षा दी जाती थी. उन्होंने इंस्टीट्यूट में शिक्षक और प्रशासक दोनों के रूप में काम किया. एक तरफ़ उन्होंने अध्यात्म से ख़ुद को जो़डे रखा, वहीं दूसरी तरफ़ सांसारिक कार्यों को बख़ूबी अंजाम देते रहे. उन्होंने यात्राएं कीं, व्याख्यान दिए और किताबें लिखीं. वह जीवंत, ऊर्जावान और आनंद से भरे हुए थे. वे मानते थे कि मनुष्य का शरीर मंदिर, मस्जिद, गिरजाघरों से भी ऊंचा है, क्योंकि इस शरीर में निवास करने वाली आत्मा ही देवता है और अपने इसी सिद्धांत का प्रचार करते हुए उन्होंने आनंदमय जीवन जीने की कला लोगों को सिखाई. भौतिक शरीर एवं आध्यात्मिक शरीर दोनों के संतुलन के लिए मन, आत्मा, परमात्मा, पंचतत्व और इंद्रियों का ज्ञान होना ज़रूरी है. जो मनुष्य पंचतत्व शरीर का संतुलन करना सीख जाता है, वह न केवल आनंदमय जीवन जीना सीख जाता है, बल्कि उसे आत्म ज्ञान भी प्राप्त हो जाता है. लेकिन हैरत की बात तो यह है कि इंसान उस चीज़ की तलाश में यहां-वहां भटकता फिरता है, जबकि वह चीज़ उसके पास ही होती है. वह लिखते हैं-बचपन से ही तुम मठ-मंदिरों और अपने माता-पिता से सुन रहे हो, जिन्होंने तुमसे कहा है कि तुम्हें भगवान को खोजना चाहिए, पर वास्तव में तुम्हारे पास पहले से ही वह है, क्योंकि वह तो हर जगह और हर समय मौजूद है. जो तुम्हारे पास नहीं है, तुम स्वयं में भी पाने में सफल नहीं हो सकते, तो मानव का उद्देश्य और प्रयास भगवान को पाना नहीं होना चाहिए. उसका प्रयास वास्तव में स्वयं को पाना होना चाहिए. जब तुम सही में स्वयं को जानोगे, तब तुम स्वयं को महसूस करोगे और तब तुम समझोगे कि तुमने भगवान को भी महसूस कर लिया है. तुम्हें भगवान बनने या उसे धारण करने की ज़रूरत नहीं है और अगर तुम ऐसा कर पाते हो, तो तुम निराश हो जाओगे कि अगर ऐसा होता है, तो कोई भी तुम्हें समझ नहीं पाएगा. इसके बजाय स़िर्फ एक लक्ष्य के लिए परिश्रम करो. अपने वास्तविक स्व को पहचानने के लिए सीखो अपने अंदर के स्व को कैसे पहचानोगे. अगर तुम स्वयं को नहीं पहचानोगे और तुम भगवान को जानने की कोशिश करोगे, तो ऐसा संभव ही नहीं होगा.

एक दिन स्वामी राम ने अपने शिक्षक से भगवान दिखा देने की ज़िद की. इस पर शिक्षक ने पूछा कि तुम कैसा भगवान देखना चाहोगे, क्योंकि भगवान के बारे में तुम्हारी कोई न कोई धारणा तो होगी ही. उन्होंने कहा कि इस बारे में उन्होंने कभी सोचा ही नहीं. इस पर उनके शिक्षक ने कहा कि जिस दिन तुम धारणा बना लोगे, उस दिन मैं तुम्हें भगवान दिखा दूंगा. उनका मतलब था कि यह हमारा मस्तिष्क ही है, जिसने भगवान की अवधारणा विकसित की है, पर मस्तिष्क के पास भगवान की पूरी अवधारणा नहीं है, क्योंकि मस्तिष्क की इतनी विस्तृत क्षमता नहीं है. भगवान मानव मस्तिष्क द्वारा पूरी तरह से कभी भी अवधारित नहीं किया जा सकता. हम में से अधिकतर भगवान और गुरुओं की एक सीमित अवधारणा ही विकसित कर पाते हैं और बाद में हम पाते हैं कि दोनों वास्तव में अलग हैं, उससे जो हमने अवधारित किए थे.

दरअसल, इच्छाएं ही दुख का कारण बनती हैं. अगर इच्छाएं ख़त्म कर दी जाएं, तो इंसान हमेशा ख़ुश रह सकता है. एक बार एक पत्रकार ने महात्मा गांधी से पूछा, प्रसन्नता कैसे प्राप्त की जाए. गांधी जी ने उत्तर दिया- जब तुम्हारी कोई इच्छा नहीं होगी, तब तुम प्रसन्न रहोगे. सामान्यतया तुम सोचते हो, जब मैं भगवान को पा लूंगा, तब मैं भी प्रसन्न रहूंगा, पर व्यावहारिक बनकर तुम्हें यह पहचानना होगा, जब तुम्हारी कोई इच्छा नहीं होती, इसका अर्थ है, तुमने सारी इच्छाएं पूरी कर लीं और अब तुम प्रसन्न हो. एक सामान्य आदम और एक साधु में यही अंतर है कि एक साधु अंदर से शक्तिशाली होता है और किसी को आज्ञा नहीं देता कि वह उसके मस्तिष्क और भावनाओं को प्रभावित करे. महात्मा बुद्ध ने इसका प्रदर्शन राजग्रही गांव में किया था, अपना सिंहासन छो़डने के बाद, अपना राज्य त्यागने के बाद और उस छोटे से गांव में चले गए आडंबरहीन जीवन जीने के लिए. दूसरे से सहायता मांगने के कारण अहंकार कम होता है, इसलिए वह वहां चले गए भिक्षा मांगने के लिए. वह राजकुमार थे, पर वह संसार के सबसे साधारण आदमी बनना चाहते थे. बेशक, इंसान चाहे, तो क्या नहीं कर सकता. बक़ौल राम स्वामी, तुम्हारे पास शक्ति है कि तुम अपना भाग्य बदल सकते हो. तुम्हारे पास शक्ति है कि तुम अपना व्यक्तित्व बदल सकते हो. तुम्हारे पास शक्ति है कि तुम अपने पूरे जीवन की धारा बदल सकते हो और उसे एक नई दिशा दे सकते हो. हां, इसके लिए तुम्हें ख़ुद को बदलना प़डेगा, अपने विचारों को बदलना प़डेगा.

आत्मिक शांति के लिए ध्यान बेहद ज़रूरी है. ध्यान की प्रक्रिया किसी विशेष धर्म, संस्कृति या समूह से जु़डा हुआ कर्म-कांड नहीं है. सभी महान धर्म एक समान वास्तविकता से आते हैं और बिना इस वास्तविकता को जाने जीवन का उद्देश्य परिपूर्ण हो ही नहीं सकता. सभी महान और बौद्धिक पुरुष और महिलाएं ध्यान लगाते थे. ईसा मसीह निश्‍चित रूप से ध्यान करते थे. मोज़ेज, राम और कृष्ण भी ध्यान लगाते थे, क्योंकि ध्यान ही मन-मस्तिष्क को शांत करता है. ध्यान वास्तविकता के प्रति जागरूक करता है. ध्यान निर्भय बनाता है. ध्यान न केवल प्रेम करने वाला बनाता है, बल्कि उस आंतरिक आनंद के स्तर पर ले जाता है, जिसे समाधि कहते हैं. बाइबल में कहा गया है कि जिनके पास सुनने के लिए कान हैं वे सुनेंगे. जब मस्तिष्क शांत और लय में होगा, तब वह अनजानी आवाज़ें भी सुन पाएगा और गहरे ध्यान में प्राचीन साधु कुछ निश्‍चित आवाज़ें सुनते थे, जिन्हें मंत्र कहा जाता है और इस स्थिति में जो ध्वनि सुनी जाती है, उसका किसी विशेष भाषा, धर्म या परंपरा से कोई संबंध नहीं होता है.

बहरहाल, यह किताब सोचने पर मजबूर करती है कि हमारी ज़िंदगी का मक़सद क्या है और हम हक़ीक़त में क्या पाना चाहते हैं. आज के दौर में जब इंसान दौलत, शोहरत और ताक़त के पीछे भाग रहा है और इन्हें पाने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार है, तो ऐसे में यह किताब इंसान को ख़ुद के अंदर झांकने के लिए प्रेरित करती है. जब से इंसान ने इस धरती पर क़दम रखा है, तभी से वह ईश्वर को पा लेना चाहता है. अलग-अलग मज़हबों में ईश्वर को पाने के लिए रास्ते बताए गए हैं, जिन पर चलकर वह अपने ईश्‍वर को पा सकता है. हैरत की बात है कि इसके बाद भी लोग ख़ुदा को पाने के लिए ख़ुदा को ही भूल गए हैं और ढोंगियों के जाल में फंसते जा रहे हैं. इसकी वजह से धर्म भी एक ब़डा कारोबार बन गया है. आज के ऐसे दौर में यह किताब ख़ुद से परिचय कराने का एक बेहतर साधन है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)

समीक्ष्य कृति : आनन्दमय जीवन का उत्सव
लेखक : स्वामी राम
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स
क़ीमत : 150 रुपये

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