ग़ालिब की डायरी है दस्तंबू


फ़िरदौस ख़ान
हिन्दुस्तान के बेहतरीन शायर मिर्ज़ा ग़ालिब ने उर्दू शायरी को नई ऊंचाई दी. उनके ज़माने में उर्दू शायरी इश्क़, मुहब्बत, विसाल, हिज्र और हुस्न की तारी़फों तक ही सिमटी हुई थी, लेकिन ग़ालिब ने अपनी शायरी में ज़िंदगी के विभिन्न रंगों को शामिल किया. उनकी शायरी में हक़ीक़त के रंग हैं, तो फ़लसफ़े की रोशनीभी है. हालांकि उस व़क्त कुछ लोगों ने उनका मज़ाक़ भी उ़डाया, लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की. यहां तक कि ब्रिटिश हुकूमत को भी उन्होंने काफ़ी सराहा. उन्होंने 1857 के आंदोलन के दौरान रूदाद लिखी. फ़ारसी में लिखी इस रूदाद को दस्तंबू नाम से प्रकाशित कराया गया फ़ारसी में दस्तंबू का मतलब है फूलों का गुलदस्ता.

हाल में राजकमल ने दस्तंबू का हिंदी अनुवाद प्रकाशित किया है. फ़ारसी से इसका हिंदी अनुवाद डॉ. सैयद ऐनुल हसन और संपादन अब्दुल बिस्मिल्लाह ने किया है. मिर्ज़ा ग़ालिब दस्तंबू के ज़रिए अंग्रेजों से कुछ आर्थिक सहायता हासिल करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने मुंशी हरगोपाल तफ्त को कई लंबे-लंबे ख़त लिखकर किताब को जल्द प्रकाशित कराने का अनुरोध किया. इन ख़तों को भी इस किताब में प्रकाशित किया गया है. इसके साथ ही किताब के आख़िर में क्वीन विक्टोरिया की शान में लिखा क़सीदा भी है, जिससे अंग्रेज़ों के प्रति ग़ालिब की निष्ठा को समझा जा सकता है, भले ही वह उनकी मजबूरी ही क्यों न हो!

दरअसल, मिर्ज़ा ग़ालिब की इस डायरी में 1857 के हालात को पेश किया गया है. अंग्रेज़ों के दमन से परेशान होकर जब हिंदुस्तान के जांबाज़ों ने 31 मई, 1857 को सामूहिक विद्रोह करने का फ़ैसला किया, तब सैनिक मंगल पांडे ने 29 मार्च, 1857 को चर्बी लगे कारतूसों का इस्तेमाल करने से इंकार करके इस आंदोलन की शुरुआत की. नतीजतन, मंगल पांडे को गिरफ्तार कर लिया गया और 8 अप्रैल, 1857 को उन्हें अंतत: फांसी दे दी गई. इस पर भारतीय सैनिकों ने बग़ावत करते हुए 10 मई, 1857 को ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ आंदोलन छेड़ दिया. आंदोलन की आग सबसे पहले मेरठ में भड़की. इसके बाद सैनिक दिल्ली आ गए और कर्नल रिप्ले को मार दिया. आंदोलन को दबाने के लिए अंग्रेज़ों ने भी सख्ती बरती और नरसंहार शुरू हो गया. उस वक़्त ग़ालिब पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान इलाक़े में रहते थे. उन्होंने क़त्लेआम अपनी आंखों से देखा था. उनके कई दोस्त मारे जा चुके थे और कई दोस्त दिल्ली छो़डकर चले गए थे. ग़ालिब अकेले अपने घर में मुसीबत से भरी ज़िंदगी जी रहे थे. दस्तंबू में उन्होंने अपने तल्ख़ अनुभवों को मार्मिकता से पेश किया है. इसमें उन्होंने 11 मई, 1857 की हालत का काव्यात्मक वर्णन भी किया है. ख़ास बात यह है कि उन्होंने अंग्रेजों की प्रशंसा करते हुए बाग़ियों को ख़ूब खरी-खोटी सुनाई है.

किताब की शुरुआत हम्द यानी ईश प्रार्थना से हुई है और इसके बाद ग़ालिब ने अपनी रूदाद लिखी है. वह लिखते हैं-
मैं इस किताब में जिन शब्दों के मोती बिखेर रहा हूं, पाठकगण उनसे अनुमान लगा सकते हैं कि मैं बचपन से ही अंग्रेज़ों का नमक खाता चला आ रहा हूं. दूसरे शब्दों में कहना चाहिए कि जिस दिन से मेरे दांत निकले हैं, तब से आज तक इन विश्वविजेताओं ने ही मेरे मुंह तक रोटी पहुंचाई है. ज़ाहिर है कि ग़ालिब ने जिस अंग्रेज़ सरकार का नमक खाया था, वह उनकी नज़र में बेहद इंसाफ़  पसंद और मासूम सरकार थी. हालांकि ग़ालिब का रिश्ता मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र से भी था और ज़फ़र की शायरी के वह  उस्ताद थे. शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र ने उन्हें दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद्दौला के ख़िताब से नवाज़ा. बाद में उन्हें मिर्ज़ा नोशा के ख़िताब से भी सम्मानित किया गया. वह बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार में महत्वपूर्ण दरबारी थे. उन्हें बहादुर शाह ज़फ़र के ब़डे बेटे फ़क़रुद्दीन मिर्ज़ा का शिक्षक तैनात किया गया. इसके अलावा वह म़ुगल दरबार के शाही इतिहासकार भी रहे. इसके बावजूद वह बादशाह से मुतमईन नहीं थे. वे लिखते हैं-
मैं हफ्ते में दो बार बादशाह के महल में जाता था और अगर उसकी इच्छा होती, तो कुछ समय वहां बैठता था, अन्यथा बादशाह के व्यस्त होने की वजह से थोड़ी देर में ही दीवान-ए-ख़ास से उठकर अपने घर की ओर चल देता था. इस बीच जांची हुई रचनाओं को या तो ख़ुद वहां पहुंचा देता या बादशाह के दूतों को दे देता था, ताकि वे बादशाह तक पहुंचा दें. बस, मेरा इतना ही काम था और दरबार से मेरा इतना ही नाता था. हालांकि यह छोटा-सा सम्मान, मानसिक और शारीरिक दृष्टि से आरामदायक और दरबारी झगड़ों से दूर था, लेकिन आर्थिक दृष्टि से सुखप्रद नहीं था. उस पर भी ग्रहों का चक्कर मेरे इस छोटे-से सम्मान को मिट्टी में मिला देने पर तुला हुआ था.

अंग्रज़ों से ग़ालिब को आर्थिक संरक्षण भी मिला और सम्मान भी. लिहाज़ा वह उनके प्रशंसक हो गए. अंग्रेजों और भारतीयों की तुलना करते हुए वह लिखते हैं-
एक वह आदमी, जो नामवर और सुविख्यात था, उसकी सारी प्रतिष्ठा धूल में मिल गई थी. दूसरा वह, जिसके पास न इज्ज़त थी और न ही दौलत, उसने अपना पांव चादर से बाहर फैला दिया.

दरअसल, ग़ालिब शासक को धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि मानते थे, इसलिए उनकी नज़र में राजद्रोह का मतलब देशद्रोह था. वह ख़ुद कहते हैं-
ख़ुदा जिसे शासन प्रदान करता है, निश्चय ही उसे धरती को जीतने की शक्ति भी प्रदान करता है. इसलिए जो व्यक्ति शासकों के विरुद्ध कार्य करता है, वह इसी लायक़ है कि उसे सिर पर जूते पड़ें. शासित का शासक से लड़ना अपने आपको मिटाना है.

ग़ालिब पहले शायर नहीं थे, जिन्होंने राज दरबार के प्रति अपनी निष्ठा ज़ाहिर की, बल्कि उस दौर के अनेक साहित्यकारों ने ब्रिटिश हुकूमत का साथ दिया. भारतेन्दु हरिश्चंद्र पर भी इस तरह के आरोप लगे, लेकिन ग़ालिब का अपना अंदाज़ था. हालांकि भारतेन्दु ने अंग्रेज़ी शासन की आलोचना भी की. भले ही ग़ालिब ने दस्तंबू में अंग्रेज़ी हुकूमत की सराहना की है, लेकिन शायरी के लिहाज़ से यह किताब लाजवाब है. अंग्रेज़ों की मौत का ज़िक्र करते हुए वे लिखते हैं-
दुख होता है उन रूपवती, कोमल, चंद्रमुखी और चांदी जैसे बदन वाली अंग़्रेज महिलाओं की मौत पर. उदास हो जाता है मन, उन अंग्रेज़ बालकों के असामयिक अंत पर, जो अभी संसार को भली-भांति देख भी नहीं पाए थे. स्वयं वे फूलों की भांति थे और फूलों को देखकर हंस पड़ते थे.
उन्होंने विद्रोह के दौरान दिल्ली के बाशिंदों की बदहाली का भी बेहद मार्मिक वर्णन किया है. वह लिखते हैं-
15 सितंबर से हर घर बंद प़डा हुआ है. न तो कोई सौदा बेचने वाला है और न ही कोई ख़रीदने वाला. गेहूं बेचने वाले कहां हैं कि उनसे गेहूं ख़रीदकर आटा पिसवा सकूं. धोबी कहां, जो कपड़ों की बदबू दूर हो. नाई कहां, जो बाल काटे. भंगी कहां, जो घर का कूड़ा साफ़ करे.
जब दिल्ली में क़त्लेआम हो रहा था, तब ग़ालिब अपने घर में बंद थे. वह लिखते हैं-ऐसे वातावरण में मुझे कोई भय नहीं था. ऐसे में मैंने ख़ुद से कहा कि मैं क्यों किसी से भयभीत रहूं. मैंने तो कोई पाप किया नहीं है, इसलिए मैं सज़ा का पात्र नहीं हूं. न तो अंग्रेज़ बेगुनाह को मारते हैं, और न ही नगर की हवा मेरे प्रतिकूल है. मुझे क्या पड़ी है कि ख़ुद को हलकान करूं. मैं एक कोने में, अपने घर में ही बैठा अपनी क़लम से बातें करूं और क़लम की नोक से आंसू बहाऊं. यही मेरे लिए अच्छा है.
मेरी खोली ख़ाली है
मेरे आशा-तरु के पत्ते झ़ड चुके हैं
या ख़ुदा ! मैं कब तक इस बात से ख़ुश होता रहूं
कि मेरी शायरी हीरा है
और ये हीरे मेरी ही खान के ख़ज़ाने हैं
ग़ालिब क़िस्मत पर बहुत यक़ीन करते थे, तभी तो वह लिखते हैं-
जन्म से जो भाग्य में लिखा है, उसे बदला नहीं जा सकता. हर जन्मी का भाग्य एक अदृश्य फ़रमान में बंद है, जिसमें न कोई आरंभ है और न कोई अंत. सभी को वही मिला है, जो उस फ़रमान में लिखा हुआ है. हमारे सुख और दुख उसी से संचालित हैं. इसलिए हमें बुज़दिल और डरपोक नहीं होना चाहिए, बल्कि छोटे बच्चों की भांति वक़्त के रंगों का हंसी-ख़ुशी तमाशा देखना चाहिए.

बहरहाल, इस किताब के ज़रिये राजकमल प्रकाशन ने हिंदी पाठकों को मिर्ज़ा ग़ालिब की दस्तंबू से रूबरू होने का मौक़ा दिया है, जो सराहनीय है. दरअसल, अनुवाद के ज़रिए हिंदी पाठक उर्दू, फ़ारसी और अन्य भाषाओं की महान कृतियों को पढ़ पाते हैं. किताब के आख़िर  में मुश्किल शब्दों का अर्थ दिया गया है, जिससे पाठकों को इसे समझने में आसानी होगी. कुल मिलाकर यह एक बेहतरीन किताब है. (स्टार न्यूज़ एजेंसी) 

समीक्ष्य कृति : दस्तंबू 
लेखक : मिर्ज़ा ग़ालिब
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
क़ीमत : 200 रुपये

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