मुहब्बत का मुजस्समा


मुहब्बत क्या होती है... इसे बेशक लफ़्ज़ों में बयां नहीं किया जा सकता... सिर्फ़ महसूस ही किया जा सकता है... लेकिन कुछ लम्हे ऐसे भी हुआ करते हैं, जब मुहब्बत मुजस्समा बनकर सामने आ खड़ी होती है... और हम उसे देखते ही रह जाते हैं...
कई बरस पहले की बात है... जून का गरम महीना था... तपती दोपहरी ढल रही थी... मगर सूरज अब भी आग बरसा रहा था... लड़का गांव की एक पगडंडी के पास खड़ा था... लड़की उसके पास जाकर खड़ी हो गई... उसने बात शुरू ही की थी कि अचानक लड़के ने अपना रुख़ बदल लिया... इसलिए लड़की को भी मुड़ना पड़ा... लड़के ने ऐसा क्यों किया... वो ये समझ पाती कि लड़का हल्के से मुस्करा उठा... अब उसका साया लड़की पर पड़ रहा था... उसने लड़की को अपने साये में कर लिया था... सूरज की तपती धूप से कुछ हद तक उसे बचा लिया था...
उस वक़्त लड़के की आंखों में जो चमक थी, उसे कभी बयां नहीं किया जा सकता... लड़की को लगा कि वो मुहब्बत ही तो हैं... मुहब्बत का एक मुजस्समा, जिसकी पूजा करने को जी चाहता है...
(ज़िन्दगी की कहानी का एक वर्क़)
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