तुम्हारे ज़ेरे-साये में रहूं…

मेरे महबूब !
तुम्हारी रफ़ाक़त के साये में
मेरी बेचैन रूह सुकून पाती है...

तुम्हारी गुफ़्तगू की ख़ुशबू से
दिलो-दिमाग़ महक उठते हैं...

तुम्हारी अक़ीदत के नूर से
मेरी ज़िन्दगी रौशन है...

तुम पर हमेशा
अल्लाह की रहमत बरसती रहे
और
अज़ल से अबद तक
मैं तुम्हारे ज़ेरे-साये में रहूं...
-फ़िरदौस ख़ान


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फ़ासला रहे तुमसे...

फ़्रिरदौस ख़ान
गुज़श्ता वक़्त का वाक़िया है... हमारे घर एक ऐसे मेहमान को आना था, जिनका ताल्लुक़ रूहानी दुनिया से है... हम उनके आने का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे... जिस दिन उन्हें आना था, वह नहीं आए... हम रातभर सो न पाये... फिर अगले दिन भी सुबह से ही उनके आने का इंतज़ार कर रहे थे... ऐसा पहले भी कई मर्तबा हुआ कि हमने उनके आने का इंतज़ार किया, मगर वह नहीं आए... दिल उदास हो गया, क्योंकि वह आएंगे ही, इसका ऐतबार हमें कम था...
अम्मी ने हमारी हालत देखकर कहा- परेशान मत हो... तुम्हारे लिए वह ’एक’ हैं... लेकिन उनके लिए तुम जैसे ’हज़ारों’ होंगे...
हमारी अम्मी ने वाक़ई कितना सही कहा था...

हमें माज़ी का एक वाक़िया याद आ गया... हमारी मुलाक़ात एक ’बुज़ुर्ग’ से हुई... वह हमारे शहर में पहली मर्तबा आए थे... हमने बहुत से लोगों ने उनकी मुलाक़ात कराई... वे लोग उन्हें अपने घर बुलाने लगे... जैसे-जैसे उन लोगों से उनकी क़रीबी हुई, उन्होंने हमारे घर आना बंद कर दिया... एक रोज़ हमने उनसे कहा कि आप हमारे शहर में आते हैं और हमसे बिना मिले चले जाते हैं... इस पर उन्होंने ऐसा जवाब दिया, जिसकी उम्मीद हमें क़तई नहीं थी... उन्होंने कहा, इस शहर में मेरे और भी चाहने वाले हैं...

नये वाक़िये ने पुराने वाकि़ये को फिर से सामने लाकर खड़ा कर दिया... अब अहद कर लिया है कि जिसके ’हज़ारों’ चाहने वाले होंगे, उससे फ़ासले से ही मिला करेंगे...

शाज़ तमकनत ने क्या ख़ूब कहा है-
कोई गिला कोई शिकवा ज़रा रहे तुमसे
ये आरज़ू है कि इक सिलसिला रहे तुमसे...
हर एक शख़्स की होती है अपनी मजबूरी
मैं उस जगह हूं जहां फ़ासला रहे तुमसे...
(ज़िन्दगी की किताब का एक वर्क़)

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बारिश

आज मौसम बहुत ख़ुशगवार है... बिल्कुल चम्पई उजाले और सरमई अंधेरे वाले दिन... आसमान पे छाई काली घनघोर घटायें... और बरसता-भीगता मौसम माहौल को रूमानी बना रहा है...
गुज़श्ता वक़्त में ऐसे ही सुहाने मौसम में लिखी एक नज़्म का एक शेअर पेश है...
बारिश में भीगती है कभी उसकी याद तो
इक आग-सी हवा में लगाती हैं बारिशें...
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साहिर लुधियानवी हर पल के शायर थे...

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फ़िरदौस ख़ान
लफ़्ज़ों के जादूगर और हर दिल अज़ीज़ शायर साहिर का असली नाम अब्दुल हयी साहिर था, लेकिन उन्होंने इसे बदल कर साहिर लुधियानवी रख लिया था. उनका जन्म 8 मार्च, 1921 में लुधियाना के एक जागीरदार घराने में हुआ था. उनके पिता बेहद अमीर थे. घर में किसी चीज़ की कमी नहीं थी, लेकिन माता-पिता के अलगाव के बाद वह अपनी मां के साथ रहे और इस दौरान उन्हें ग़ुरबत में दिन गुज़ारने पड़े. उन्होंने लुधियाना के ख़ालसा हाईस्कूल से दसवीं की. गवर्नमेंट कॉलेज से 1939 में उन्हें निकाल दिया गया था. बाद में इसी कॉलेज में वह मुख्य अतिथि बनकर आए थे. यहां से संबंधित उनकी नज़्म बहुत मशहूर हुई-
इस सर ज़मीन पे आज हम इक बार ही सही
दुनिया हमारे नाम से बेज़ार ही सही
लेकिन हम इन फ़िज़ाओं के पाले हुए तो हैं
गर यहां नहीं तो यहां से निकाले हुए तो हैं...

1943 में वह लाहौर आ गए और उसी साल उन्होंने अपना पहला कविता संग्रह तलखियां शाया कराया, जो बेहद लोकप्रिय हुआ और उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई. इसके बाद 1945 में वह प्रसिद्ध उर्दू पत्र अदब-ए-लतीफ़ और शाहकार लाहौर के संपादक बन गए. बाद में वह द्वैमासिक पत्रिका सवेरा के भी संपादक बने. इस पत्रिका में उनकी एक नज़्म को पाकिस्तान सरकार ने अपने ख़िलाफ़ बग़ावत मानते हुए उनके विरुद्ध वारंट जारी कर दिया. 1949 में उन्होंने लाहौर छोड़ दिया और दिल्ली आ गए. यहां उनका दिल नहीं लगा और वह मुंबई चले आए. वहां वह उर्दू पत्रिका शाहराह और प्रीतलड़ी के संपादक बने. इसी साल उन्होंने फ़िल्म आज़ादी की राह के लिए गीत लिखे. संगीतकार सचिन देव बर्मन की फ़िल्म नौजवान के गीत ठंडी हवाएं लहरा के आएं…ने उन्हें प्रसिद्धि दिलाई. इसके बाद उन्होंने मुड़कर नहीं देखा. उन्होंने सचिन देव बर्मन के अलावा, एन दत्ता, शंकर जयकिशन और ख़य्याम जैसे संगीतकारों के साथ काम किया. साहिर एक रूमानी शायर थे. उन्होंने ज़िंदगी में कई बार मुहब्बत की, लेकिन उनका इश्क़ कभी परवान नहीं चढ़ पाया. वह अविवाहित रहे. कहा जाता है कि एक गायिका ने फ़िल्मों में काम पाने के लिए साहिर से नज़दीकियां बढ़ाईं और बाद में उनसे किनारा कर लिया. इसी दौर में साहिर ने एक ख़ूबसूरत नज़्म लिखी-
चलो इक बार फिर से
अजनबी बन जाएं हम दोनों
चलो इक बार फिर से…
न मैं तुमसे कोई उम्मीद रखूं दिलनवाज़ी की
न तुम मेरी तरफ़ देखो ग़लत अंदाज़ नज़रों से
न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाए मेरी बातों से
न ज़ाहिर हो तुम्हारी कशमकश का राज़ नज़रों से
चलो इक बार फिर से…

साहिर ने फ़िल्मी दुनिया में भी अपनी शायरी का कमाल दिखाया. उनके गीतों और नज़्मों का जादू सिर चढ़कर बोलता था. उनका नाम जिस फ़िल्म से जु़ड जाता था, उसमें वह सर्वोपरि होते थे. वह किसी के सामने नहीं झुकते थे, चाहे वह लता मंगेशकर हों या फिर सचिन देव बर्मन. वह संगीतकार से ज़्यादा मेहनताना लेते थे और ताउम्र उन्होंने इसी शर्त पर फ़िल्मों में गीत लिखे. हर दिल अज़ीज़ इस शायर ने कभी घुटने नहीं टेके, न शायरी में और न सिनेमा में. उनकी आन-बान-शान किसी फ़िल्मी सितारे से कम न थी. उन्हें भी फ़िल्मी सितारों की तरह चमचमाती महंगी गाड़ियों का शौक़ था. अपनी फ़ितरत की वजह से वह आलोचनाओं का भी शिकार रहे. वह अपने गीत को समूची फ़िल्म कृति से भारी समझते थे और इस बात को वह डंके की चोट पर कहते भी थे. यश चोपड़ा की फ़िल्म कभी-कभी के गीतों को याद कीजिए. फ़िल्म की शुरुआत में ही साहिर के दो गीत रखे गए, जो बेहद लोकप्रिय हुए-
कभी-कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है
कि जैसे तुझको बनाया गया है मेरे लिए
तू अबसे पहले सितारों में बस रही थी कहीं
तुझे ज़मीं पे बुलाया गया है मेरे लिए…

मैं पल दो पल का शायर हूं
पल दो पल मेरी जवानी है
पल दो पल मेरी हस्ती है
पल दो पल मेरी कहानी है…

साहिर सिर्फ़ अपने लिए ही नहीं, दूसरों के लिए भी सिद्धांतवादी थे. वह लाहौर में साहिर साक़ी नामक एक मासिक उर्दू पत्रिका निकालते थे. पत्रिका घाटे में चल रही थी. साहिर की हमेशा यह कोशिश रहती थी कि कम ही क्यों न हो, लेकिन लेखक को उसका मेहनताना ज़रूर दिया जाए. एक बार वह ग़ज़लकार शमा लाहौरी को वक़्त पर पैसे नहीं भेज सके. शमा लाहौरी को पैसों की सख्त ज़रूरत थी. वह ठंड में कांपते हुए साहिर के घर पहुंच गए. साहिर ने उन्हें चाय बनाकर पिलाई. इसके बाद उन्होंने खूंटी पर टंगा अपना महंगा कोट उतारा और उन्हें सौंपते हुए कहा, मेरे भाई, बुरा न मानना, लेकिन इस बार नक़द के बदले जिंस में मेहनताना क़ुबूल कर लो. ऐसे थे साहिर. 25 अक्टूबर, 1980 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया, लेकिन अपनी शायरी की बदौलत वह गीतों में आज भी ज़िंदा हैं. उनकी महान रचनाओं ने उन्हें अमर कर दिया है. रहती दुनिया तक लोग उनके गीत गुनगुनाते रहेंगे. (स्टार न्यूज़ एजेंसी)
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लड़कियां...


लड़कियां
डरी-सहमी लड़कियां
चाहकर भी
मुहब्बत की राह पर
क़दम नहीं रख पातीं
क्यूंकि
वो डरती हैं
उन नज़रों से
जो हमेशा
उन्हें घूरा करती हैं
उनके हंसने-मुस्कराने
की वजहें पूछी जाती हैं
उनके चहकने पर
तानें कसे जाते हैं
उनके देर तक जागने पर
सवालों के तीर छोड़े जाते हैं...

लड़कियां
मजबूर और बेबस लड़कियां
चाहकर भी
अपनी मुहब्बत का
इक़रार नहीं कर पातीं
क्यूंकि
वो डरती हैं
कहीं कोई उनकी आंखों में
महकते ख़्वाब न देख ले
कहीं कोई उनकी तेज़ होती
धड़कनें न सुन ले
कहीं कोई उनके चेहरे से
महबूब का नाम न पढ़ ले

सच
कितनी बेबस होती हैं
ये लड़कियां...
-फ़िरदौस ख़ान
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